13 रजब का जुलूस, मसला-ए-जैनाबिया और कौम के जवान
अगर हमें किसी कौम के जिंदा
या मुर्दा होने की जांच करनी है तो देखना होगा की उसके जवान किन मुद्दों को ले कर
हस्ससियत दिखा रहे है. अगर मुआशरे में जिन पॉइंट्स पर बात चल रही है वो कौम के
भलाई के लिए है और उन मुद्दों पर कौम के बुज़ुर्ग और उलेमा साथ है तो समझे की कौम एक सही राह पर आगे बढ़ रही हैं; लेकिन अगर जवान तैश में आ कर कोई मुद्दे को अपने मन
से, और बग़ैर किसी बुज़ुर्ग / आलिम की रहनुमाई के हस्ससियत दिखा रहे है और उसे जीने या मरने की
बात समझ रहे है, तो समझिये की कौम की लीडरशिप सही हाथो में नहीं है और फ्यूचर साफ़
नज़र नहीं आ रहा है.
पिछले दिनों मुंबई में हुए
कुछ हादेसात इस बात की तरफ इशारा करते है की हमारे कौम के जवानों की तरफ बुज़ुर्गान
और ओलेमा को खास ध्यान देने की ज़रूरत है. इन सब में सरे फेहरिस्त है जवानों की तरबियत
और दुसरे मज़ाहिब से रिश्ते नाते रखने के आदाब.
हर साल की तरह इस साल भी
यौमे विलादत-ए-इमाम अली (अ) के रोज़ एक पुर जोश जुलूस मुंबई के डोंगरी इलाके में
निकला. याद रहे की मुंबई का डोंगरी इलाके में मुसलमानों के सभी मसलक और फ़िक्र के
लोग रहते है, जिनमे शिया, सुन्नी, बोहरी, अगाखानी और दीगर लोग एक साथ मिल कर रहते
है. ऐसे माहोल में हमारे तरफ से ज़रा सी भी नादानी एक अमन वाले माहोल को फिरकापरस्त
तनाव में तब्दील कर सकती है.
पिछले साल के 13 रजब के
जुलूस में कौम के कुछ जवान और बच्चे, एक सोचे समझे तरीके से अहले सुन्नत के
मुक़द्देसात पर लानत मलामत करते नज़र आए थे, जिसका विडियो यू-ट्यूब पर भी पोस्ट कर दिया
गया था, जिसकी वजह से कौम शिया सुन्नी तनाव से बाल बाल बची थी. इस सानिहे के बाद
चाहिए ये था की कौम के बुज़ुर्गान और ओलेमा बैठ कर इस बारे में सोचते की ऐसी हालत
क्यों आई की कौम के जवान और बच्चे बिना किसी झिझक दुसरे कौम पर लानत मलामत करने पर
आमादा हो गए. और अगर हुए भी तो फिर इन्हें वापस किस तरह शांत किया जाए. लेकिन
अफ़सोस, ऐसा कुछ हुआ नहीं और एक साल गुज़र गया.
इस साल फिर उसी रोज़, जिस
दिन काएनात का मौला और आका (अ), जिसने दुनिया में रहने वाले सभी
इंसानों के साथ जीने का तरीका सिखाया, उसकी विलादत का रोज़ होता है, उसी दिन हमारे कौम के जवान रास्तो पर निकलते
है और दुसरो के मुक़द्देसात के साथ साथ खुद हमारे शिया उलेमा पर लानत मलामत का
सिलसिला जारी हो जाता है. इस साल एक और कड़ी इस गाली गलोच में शामिल की जाती है और
वो है “बोहरी समाज के सरपरस्त, सय्यादाना साहब” की शक्सियत.
हमारे जवान जब बोहरी
मोहल्ले में मौजूद ज़िनाबिया इमामबाडा पहुचते है, जो की बोहरी जमात का मरकज़ है;
सय्य्दना साहब का नाम ले ले कर लानत भेजी गई. जब वजह पूछी तो कहा की इमामबाडा
जैनाबिया की खरीद और फरोख्त में वो शामिल है, इसलिए एक शिया जवान को ये हक हासिल
है की वो उन पर गली गलोच और लानत मलामत कर सकता है.
यहाँ पर सोचने की बात ये है
की मसला जैनाबिया इमामबाड़े की खरीद और फ़रोख्त का है, जो की कौम के ज़िम्मेदारों और
उलेमा के तहत आता है, न की जवानों को यह हक हासिल है की वो कौम के बुजुर्गो और
दुसरे मज़हब वालों को बुरा भला कहते फिरे.
इन सब के चलते हुआ वोही
जिसका डर था. उस जुलूस में जो बोहरी सय्येदेना को जो बुरा भला कहा गया था उसकी
विडियो क्लिप वायरल हो गई और बोहरी बिरादरी में जा पहुची; जिसको ले कर बोहरी जमात
ने पुलिस में केस दर्ज करवाया. पुलिस ने भी विडियो में मुलव्विस शख्स को गिरफ्तार
कर लिया फिर बाद में बेल पर उसे रिहा कर दिया गया.
बात यहाँ गिरफ्तार करने और
बेल पे छुटने की नहीं है, बल्कि दो मस्लाको के बिच के रिश्तो की है. मुसलमानों में
बोहरी बिरादरी और शिया हजरात में काफी गहरे ताल्लुक रहे है. वो हमारी मजलिसो मातम
में आते है और बहोत सी जगहे ऐसी है जहाँ हमारे मौलाना उनके घरो पर मजलिसे पढने
जाते है. इन सब से तबलीग का सिलसिला खुला हुआ है और हमने देखा की इसी मुंबई शहर
में मजगांव पर जो बोहरी शिया इमामबाडा है वह अक्सर वो लोग आते है जो पहले बोहरी
थे.
अगर गली गलोच और लानत मलामत
से मामले हल हुआ करते तो दीन और मज़हब में हिकमत और सलीक़े की राह को बढ़ावा नहीं
दिया जाता. लेकिन अफ़सोस, आज हमारे जवान को दीन के नाम पर गली गलोच और लानत सिखाया
गया और ऐसी हदीसे पेश की गई जिससे ये फ़िक्र आम हो.
इन सब के बीच कौम का एक
अहम् तबका अभी तक इस मौजु पर कुछ भी बोलने के लिए राज़ी नहीं है और अपनी जिम्मेदारियों
से जान छुडाए रोज़ मर्रा के आमाल में लगा हुआ है, और वो है कौम के उलेमा. जवानों की
रहनुमाई करना और उनको सीधे राह पर लाना उलेमा का काम है. अगर जवान नहीं सुन रहे तो
नए नए नुस्खे और रास्ते निकाल कर जवानों पर काम करना एक अहम् ज़िम्मेदारी है. ये कह
कर खामोश नहीं बैठा जा सकता की जवान सुनते नहीं.
बाज़ार में अगर कोई नया
प्रोडक्ट आता है तो उसे पब्लिक की ज़िन्दगी में लाने के लिए मार्केटिंग कंपनियां न
जाने कितने जतन कर के पैसे खर्च कर के उसे बेचती है, तब जा कर कंपनी को मुनाफा
होता है. आज दीनी फ़िक्र की तरवीज के लिए भी ज़िम्मेदारान को जवानों तक पहुचने के
लिए नए नए तरिकेकार सोचने की ज़रूरत है. कौम में अल्हम्दुलिलाह ऐसे बहोत से उलेमा
है जो अपने इलाकों में ज़बरदस्त काम कर रहे है, लेकिन अक्सर ओ बेशतर अपने जुमा के
खुतबे को भी सही तरीके से इस्तेमाल कर पाने में कासिर नज़र आते है. आज वक़्त है की
उलेमा इस नेहेज पर सोचे की आने वाली नस्लों को किस तरह ट्रेनिंग दी जाए की वो कौम
का नाम ख़राब करने की जगह कौम के नाम को ऊँचा करे.
इसी के साथ जवानों को भी
समझने की ज़रूरत है की हिन्दुस्तान में रहते हुए किसी भी मसलक या मज़हब को गली गलोच
या लानत मलामत कर के समाजी सतह पर ज़िन्दगी नहीं गुज़री जा सकती. ऐसा सोचना गलत ही
नहीं बल्कि इज्तेमाई ख़ुदकुशी होगी. हमारे दूसरी कौमो के साथ जितने अच्छे रवाबित
रहेगे, उतना हमें दुसरो पर काम करने का मौक़ा मिलेगा और दीन की तबलीग होगी और साथ
ही इस दुनिया में अच्छे दोस्त और पडोसी मिलेगे.
आइम्मा (अ) की ज़िन्दगी में
हमें हर लम्हा ऐसे मराहिल मिलेगे जिसमे वो किसी यहूदी, काफ़िर, अहले सुन्नत यहाँ तक
किसी देहरिये के साथ भी अच्छे सुलूक करते नज़र आते है. फिर ये हमारी कौम को अचानक
क्या हो गया की पूरी इंसानियत को लानत करने पर आमादा हो गई? ये बीमारी कहा से आ
लगी के चूँकि हम अहलेबैत (अ) के मानने वाले है तो हमें ये हक हासिल है की हम दुसरे
सभी को गली गलोच / लानत मलामत करने का हक रखते है? ये एक नीची सोच है और इससे हमें
उभरना होगा और इस सिलसिले में कौम की रहनुमाई उलेमा केराम ही कर सकते है.
इंशाल्लाह उम्मीद है की
उलेमा अपनी जिम्मेदारियों को समझेगे और कौम के सामने सही राहे हल रखने के साथ इसे
आगे भी बढ़ाएगे और कौम के जवान अपने उलेमा की इज्ज़त ओ वक़ार को सर्बुलंद रखते हुए
दिए गए फरमान पर अमल पैरा होगे. इंशाल्लाह जल्द हम देखेगे की हमारी कौम सर्बुलंद
होगी और दूसरी कौम के लोगो को अपनी तरफ आकर्षित करते हुए दीन के पैग़ाम को सारी दुनिया में फैलाएगी.