24 Nov 2015

तकलीद और विलायत-ए-फ़कीह




तकलीद

ग़ैबते इमामे ज़माना (अ) के दौर में अवाम को दीन के अहकाम को उसके हकीकी सूरत में पहुचने के लिए समाज में से कुछ लोगो को खास तौर पर दीनी इल्म हासिल कर के उस मकाम पर पहुचना ज़रूरी है जहाँ पर वो कुरान और हदीस में रिसर्च कर के ज़िन्दगी में पेश आने वाले मसाइल को लोगो के सामने पेश करे ताकि लोग इन अहकामात पर अमल करते हुए अपनी ज़िन्दगी बसर करे और कमियाबी तक पहुंचे.

अस्ल में देखा जाए तो हर इंसान के लिए ज़रूरी है की वो इतना दीनी इल्म हासिल करे जिससे की वो अपनी ज़िन्दगी में पेश आने वाले मसाइल को कुरान और हदीस की रौशनी में हल कर सके. लेकिन हकीक़त की नजरो से दखा जाए तो यह किसी आम इंसान के लिए मुश्किल मरहला है की वो अपने ज़िन्दगी के उमूर भी अंजाम दे और दीन का दकीक इल्म भी हासिल करे. इसलिए बेहतर सूरत समाज के लोगो के लिए यह है की कुछ लोग दीन का इल्म हासिल करने के लिए जद्दो जहद करे और मुजतहिद बने ताकि अवाम अहकामात में इन मुज्तहेदीन को फॉलो करे या उनकी तकलीद करे.


मुजतहिद की तकलीद हर बालिग़ इंसान पर फ़र्ज़ है जिससे वो हकीकी दीन पर अमल कर सके और खुद के हिसाब से अमल न करे. शिअत को आज तक हक्कानियत पर बाक़ी रखने में मरजइयात और इज्तीहाद का बहोत बड़ा हाथ है.

विलायत-ए-फ़कीह

ईरान में इस्लामी इन्केलाब आने के बाद इमाम खोमीनी (अ.र) की कयादत में ईरान में एक इस्लामी निजाम नाफ़िज़ किया जिसे “विलायत-ए-फ़कीह” के नाम से ताबीर किया गया. इस निजाम में अल्लाह के बताए हुए तमाम कानून को एक निजाम की सूरत में समाज में नाफ़िज़ किया गया जिसकी रहनुमाई एक फकीह और मुजतहिद के ज़िम्मे दी गई. इस लिए इस निजाम को विलायत-ए-फ़कीह बुलाया जाता है जिसका मतलब होता है की फ़िक्ह की विलायत.

इस निजाम में समाज का हर फैसला फकीह की रहनुमाई में लिया जाता है जो कुरान और हदीस की रौशनी में होता है. फ़कीह को अपनी जाती राए और सोच को इस निजाम में लाने की इजाज़त नहीं होती इसलिए एक आदिल और आक़िल फकीह का होना बहोत ज़रूरी है. इसके साथ ही सिस्टम की निगरानी करने के लिए बुज़ुर्ग ओलेमा की एक टीम बने गई है जिसे “मजलिस-ए-खुबरगान” कहा जाता है. इस ओलेमा की जमात का काम है की वालिये फकीह और सिस्टम के काम की चेकिंग करते रहे और अगर कोई फैसला / हुक्म दीन से अलग दिखाई दे तो उसे दुरुस्त करने के लिए सही क़दम उठाए. इसी ओलेमा की जमात को यह हक हासिल होता है की अगर वालिये फ़कीह में कोई नुक्स या खराबी दिखाई दे जिससे सिस्टम / दीन को ख़तरा हो तो उसे प्रोटोकॉल के हिसाब से मजुल भी कर सकते है.

विलायत-ए-फ़कीह के निज़ाम को नाफ़िज़ करने के लिए सबसे पहला मरहला है की उस जगह की अवाम अपने इलाक़े में निजाम को लागू करने के लिए आमादा हो. इन्केलाबे ईरान की कमियाबी के बाद इमाम खुमैनी (अ.र) ने सबसे पहले रेफेरेंडम कराया था जिसमे 90% से ज्यादा लोगो ने इस्लामी निजाम के हक में वोट दिया था और उसके बाद ईरान में विलायत-ए-फ़कीह का सिस्टम नाफ़िज़ हुआ था.

इस निजाम की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसमें अल्लाह के बताए हुए क़ानून के तहत फैसले लिए जाते है जिससे इंसान और समाज की प्रोग्रेस बहुत तेज़ी से होती है, समाज में गुनाह कम और नेकियाँ ज्यादा होती है और दीनी और दुनियावी लिहाज़ से मर्द और खवातीन, खुसूसन जवानों को आगे बढ़ने के लिए बहुत तेज़ी मिलती है.

तकलीद और विलायत-ए-फकीह में ताक़बुल

कुछ लोग तकलीद और विलायत-ए-फ़कीह में मुक़ाबला करने की कोशिश करते हुए इन दो अज़ीम नेमतो के हक में खयानत करते है. यह दोनों निजाम उम्मत के लिए बहोत ज़रूरी है इसलिए हम देखते है की जम्हुरिये इस्लामी ईरान में जमाए मुदार्रिसिन ने मराजेइन की एक फेहरिस्त जारी करी है जिन में से किसी एक की तकलीद करने के लिए अवाम को नसीहत की गई है और साथ ही वहां पर अयातुल्लाह सय्यद अली खामेनेई की शक्ल में विलायत-ए-फ़कीह का निजाम भी मौजूद है.

तकलीद और विलायत-ए-फ़कीह ग़ैबत के ज़माने में एक ज़रूरत है जो की ज़हूरे इमाम (अ) के बाद इमाम-ए-अस्र (अ) के सुपुर्द कर दिए जाएगे. इन दोनों निज़ामो में ताक़बुल एक ग़ैर ज़रूरी अमल है और ऐसा करने से समाज को नुकसान पहुचने का खतरा है.

तहरीर: अब्बास हिंदी

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तकलीद

ग़ैबते इमामे ज़माना (अ) के दौर में अवाम को दीन के अहकाम को उसके हकीकी सूरत में पहुचने के लिए समाज में से कुछ लोगो को खास तौर पर दीनी इल्म हासिल कर के उस मकाम पर पहुचना ज़रूरी है जहाँ पर वो कुरान और हदीस में रिसर्च कर के ज़िन्दगी में पेश आने वाले मसाइल को लोगो के सामने पेश करे ताकि लोग इन अहकामात पर अमल करते हुए अपनी ज़िन्दगी बसर करे और कमियाबी तक पहुंचे.

अस्ल में देखा जाए तो हर इंसान के लिए ज़रूरी है की वो इतना दीनी इल्म हासिल करे जिससे की वो अपनी ज़िन्दगी में पेश आने वाले मसाइल को कुरान और हदीस की रौशनी में हल कर सके. लेकिन हकीक़त की नजरो से दखा जाए तो यह किसी आम इंसान के लिए मुश्किल मरहला है की वो अपने ज़िन्दगी के उमूर भी अंजाम दे और दीन का दकीक इल्म भी हासिल करे. इसलिए बेहतर सूरत समाज के लोगो के लिए यह है की कुछ लोग दीन का इल्म हासिल करने के लिए जद्दो जहद करे और मुजतहिद बने ताकि अवाम अहकामात में इन मुज्तहेदीन को फॉलो करे या उनकी तकलीद करे.


मुजतहिद की तकलीद हर बालिग़ इंसान पर फ़र्ज़ है जिससे वो हकीकी दीन पर अमल कर सके और खुद के हिसाब से अमल न करे. शिअत को आज तक हक्कानियत पर बाक़ी रखने में मरजइयात और इज्तीहाद का बहोत बड़ा हाथ है.

विलायत-ए-फ़कीह

ईरान में इस्लामी इन्केलाब आने के बाद इमाम खोमीनी (अ.र) की कयादत में ईरान में एक इस्लामी निजाम नाफ़िज़ किया जिसे “विलायत-ए-फ़कीह” के नाम से ताबीर किया गया. इस निजाम में अल्लाह के बताए हुए तमाम कानून को एक निजाम की सूरत में समाज में नाफ़िज़ किया गया जिसकी रहनुमाई एक फकीह और मुजतहिद के ज़िम्मे दी गई. इस लिए इस निजाम को विलायत-ए-फ़कीह बुलाया जाता है जिसका मतलब होता है की फ़िक्ह की विलायत.

इस निजाम में समाज का हर फैसला फकीह की रहनुमाई में लिया जाता है जो कुरान और हदीस की रौशनी में होता है. फ़कीह को अपनी जाती राए और सोच को इस निजाम में लाने की इजाज़त नहीं होती इसलिए एक आदिल और आक़िल फकीह का होना बहोत ज़रूरी है. इसके साथ ही सिस्टम की निगरानी करने के लिए बुज़ुर्ग ओलेमा की एक टीम बने गई है जिसे “मजलिस-ए-खुबरगान” कहा जाता है. इस ओलेमा की जमात का काम है की वालिये फकीह और सिस्टम के काम की चेकिंग करते रहे और अगर कोई फैसला / हुक्म दीन से अलग दिखाई दे तो उसे दुरुस्त करने के लिए सही क़दम उठाए. इसी ओलेमा की जमात को यह हक हासिल होता है की अगर वालिये फ़कीह में कोई नुक्स या खराबी दिखाई दे जिससे सिस्टम / दीन को ख़तरा हो तो उसे प्रोटोकॉल के हिसाब से मजुल भी कर सकते है.

विलायत-ए-फ़कीह के निज़ाम को नाफ़िज़ करने के लिए सबसे पहला मरहला है की उस जगह की अवाम अपने इलाक़े में निजाम को लागू करने के लिए आमादा हो. इन्केलाबे ईरान की कमियाबी के बाद इमाम खुमैनी (अ.र) ने सबसे पहले रेफेरेंडम कराया था जिसमे 90% से ज्यादा लोगो ने इस्लामी निजाम के हक में वोट दिया था और उसके बाद ईरान में विलायत-ए-फ़कीह का सिस्टम नाफ़िज़ हुआ था.

इस निजाम की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसमें अल्लाह के बताए हुए क़ानून के तहत फैसले लिए जाते है जिससे इंसान और समाज की प्रोग्रेस बहुत तेज़ी से होती है, समाज में गुनाह कम और नेकियाँ ज्यादा होती है और दीनी और दुनियावी लिहाज़ से मर्द और खवातीन, खुसूसन जवानों को आगे बढ़ने के लिए बहुत तेज़ी मिलती है.

तकलीद और विलायत-ए-फकीह में ताक़बुल

कुछ लोग तकलीद और विलायत-ए-फ़कीह में मुक़ाबला करने की कोशिश करते हुए इन दो अज़ीम नेमतो के हक में खयानत करते है. यह दोनों निजाम उम्मत के लिए बहोत ज़रूरी है इसलिए हम देखते है की जम्हुरिये इस्लामी ईरान में जमाए मुदार्रिसिन ने मराजेइन की एक फेहरिस्त जारी करी है जिन में से किसी एक की तकलीद करने के लिए अवाम को नसीहत की गई है और साथ ही वहां पर अयातुल्लाह सय्यद अली खामेनेई की शक्ल में विलायत-ए-फ़कीह का निजाम भी मौजूद है.

तकलीद और विलायत-ए-फ़कीह ग़ैबत के ज़माने में एक ज़रूरत है जो की ज़हूरे इमाम (अ) के बाद इमाम-ए-अस्र (अ) के सुपुर्द कर दिए जाएगे. इन दोनों निज़ामो में ताक़बुल एक ग़ैर ज़रूरी अमल है और ऐसा करने से समाज को नुकसान पहुचने का खतरा है.

तहरीर: अब्बास हिंदी

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