11 Oct 2016

करबला - इंकेलाबी या रुसुमी?

करबला के वाक़ये को देखा जाए तो हर एक शहीद अपनी जान देने के लिए तैयार नज़र आता है. शबे आशूर सभी माएं और बहने अपने बच्चो और भाइयो की हौसला अफ़ज़ाई करती नज़र आती है की दीं की हिफाज़त के लिए जान देने में किसी भी तरह की कोताही ना होने पाए.

लेकिन जब हम अपनी मजलिसो और नौहों पर नज़र डालते है तो ऐसा महसूस होता है की हर शहीद अपने ज़ख्मो से ग़मज़दा है और औरते अपने बच्चो को खून में लथपथ देख कर रंज और सदमे में है.

कही कोई जनाबे अली अकबर को दूल्हा बना देखना चाह रहा है तो कोई जनाबे कासिम की शादी होती देख रहा है; यह रोज़े आशूर की हक़ीक़त से कोसो दूर है और करबला के पैग़ाम के साथ नाइंसाफी है.

रुसुमी  करबला की तरफ नज़र करे तो मुहर्रम मन्नतो और दुआ कुबूल करवाने का महिना है जहा फल (फ्रूट) उठा कर, दिए जला कर और शरबत बाट कर औलाद, माल और आशाइश मांगी जाती है.
वही इंकेलाबी कर्बला को देखे तो औलाद, माल और आशाइश खुदा की राह में कुर्बान करना सिखाती है.

जैसे ही करबला को देखने की नज़र बदलती है, नियत मद्दापरस्ती से मानवियत की तरफ बढती है जो की करबला का हकीकी मकसद है की इस दुनिया में फास कर न रह जाए बल्कि दीं को अहमियत दे और अपना सब कुछ दीं के लिए कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहे.

रुसुमी करबला हमारे दिलो में औलाद, माल और आशाइश की लालच बढाती है जबकि हकीकी करबला हमें आमादा करती है कि दीन ए खुदा के लिए आगे बढ़ कर काम करे और इस राह में अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए हमेशा आमादा रहे.

शिआने अली होने के नाते हमारा फ़रीज़ा है की करबला के हकीकी मतलब को समझे और असल मतलब के लिए हमेशा आमादा रहे.

आशुरा हमें इस हकीक़त की याद दिलाती है की रसूमी मातम / अज़ादारी अस्ल इस्लाम नहीं है बल्कि अस्ल अज़ादारी वो छुपा हुआ इस्लाम है जिसने शहादत की लाल चादर ओढ़ी हुई है.


अज़ादारी को चुनो, इस्लाम के मुसलसल तारीखी जद्दो जहद को जारी रखने के लिए जो खिलाफ है, गासिबो के, जो खिलाफ है बेवफाई के, जो खिलाफ है ज़ुल्म और बरबरियत के, जो खिलाफ है धोका और झूट के मम्बे के. अज़ादारी चुनो, बिल्खुसूस शोहोदाओ की याद जिंदा रखने के लिए.

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करबला के वाक़ये को देखा जाए तो हर एक शहीद अपनी जान देने के लिए तैयार नज़र आता है. शबे आशूर सभी माएं और बहने अपने बच्चो और भाइयो की हौसला अफ़ज़ाई करती नज़र आती है की दीं की हिफाज़त के लिए जान देने में किसी भी तरह की कोताही ना होने पाए.

लेकिन जब हम अपनी मजलिसो और नौहों पर नज़र डालते है तो ऐसा महसूस होता है की हर शहीद अपने ज़ख्मो से ग़मज़दा है और औरते अपने बच्चो को खून में लथपथ देख कर रंज और सदमे में है.

कही कोई जनाबे अली अकबर को दूल्हा बना देखना चाह रहा है तो कोई जनाबे कासिम की शादी होती देख रहा है; यह रोज़े आशूर की हक़ीक़त से कोसो दूर है और करबला के पैग़ाम के साथ नाइंसाफी है.

रुसुमी  करबला की तरफ नज़र करे तो मुहर्रम मन्नतो और दुआ कुबूल करवाने का महिना है जहा फल (फ्रूट) उठा कर, दिए जला कर और शरबत बाट कर औलाद, माल और आशाइश मांगी जाती है.
वही इंकेलाबी कर्बला को देखे तो औलाद, माल और आशाइश खुदा की राह में कुर्बान करना सिखाती है.

जैसे ही करबला को देखने की नज़र बदलती है, नियत मद्दापरस्ती से मानवियत की तरफ बढती है जो की करबला का हकीकी मकसद है की इस दुनिया में फास कर न रह जाए बल्कि दीं को अहमियत दे और अपना सब कुछ दीं के लिए कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहे.

रुसुमी करबला हमारे दिलो में औलाद, माल और आशाइश की लालच बढाती है जबकि हकीकी करबला हमें आमादा करती है कि दीन ए खुदा के लिए आगे बढ़ कर काम करे और इस राह में अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए हमेशा आमादा रहे.

शिआने अली होने के नाते हमारा फ़रीज़ा है की करबला के हकीकी मतलब को समझे और असल मतलब के लिए हमेशा आमादा रहे.

आशुरा हमें इस हकीक़त की याद दिलाती है की रसूमी मातम / अज़ादारी अस्ल इस्लाम नहीं है बल्कि अस्ल अज़ादारी वो छुपा हुआ इस्लाम है जिसने शहादत की लाल चादर ओढ़ी हुई है.


अज़ादारी को चुनो, इस्लाम के मुसलसल तारीखी जद्दो जहद को जारी रखने के लिए जो खिलाफ है, गासिबो के, जो खिलाफ है बेवफाई के, जो खिलाफ है ज़ुल्म और बरबरियत के, जो खिलाफ है धोका और झूट के मम्बे के. अज़ादारी चुनो, बिल्खुसूस शोहोदाओ की याद जिंदा रखने के लिए.

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