आयतुल्लाह ख़ामेनई की सवानए हयात
आयतुल्लाह हाज सय्यद अली हुसैनी ख़ामेनई मरहूम आयतुल्लाह सय्यद जावद हुसैनी ख़ामेनई के फ़रज़न्द है। उनकी पैदाइश ईरान के मुक़द्दस शहर, मशहद में 17 जुलाई, 1939 को हुई। सय्यद जावद ख़ामेनई अपने ज़माने के दीगर उलेमा की मानिंद मेयानारवी की ज़िन्दगी बसर करते थे और इन्ही की बदौलत उनका खानदान इनकेसरी और क़नाअत की ज़िन्दगी बसर करने का आदी रहा।
अपने पिदर ए बुज़ुर्गवार के घर में अपनी ज़िन्दगी को याद करते हुए आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनई फरमाते है: “मेरे वालिद एक मशहूर आलिम ए दीन थे, जो बहोत मुत्तक़ी थे और गोशनाशिनी की ज़िन्दगी जीना पसंद करते थे। हमारी ज़िन्दगी काफी मुश्किलो भरी थी। मुझे याद है कि हमारी कई राते बिना खाने के गुज़र जाती थी। मेरी वालिदा कोशिश करती और जो कुछ जमा कर पाती वो हमें खाने में मिलता और बहोत दफा वो सिर्फ रोटी और थोड़ी सी दाल होती थी।”
“मेरे वालिद का घर, जहा मेरी पैदाइश हुई और मैंने अपना बचपन गुज़ारा, वो एक छोटा सा मकान था, जो मशहद के गरीब इलाक़े में था। घर में सिर्फ एक ही कमरा था और एक तहखाना था। हमारे वालिद कहते थे की लोग आलिम के घर दीनी मशविरे और मदद के लिए आते है और उन्हें किसी क़िस्म की तकलीफ नहीं पहुचनी चाहिए। इसलिए अगर घर में कोई मेहमान हमारे वालिद से मिलने आते, तो हम तहखाने में चले जाते थे। कुछ वक़्त बाद, हमारे वालिद के कुछ दोस्तों ने पड़ोस का एक कमरा उन्हें हदिया किया और इस तरह हमारा माकन कुछ बड़ा हुआ।
आयतुल्लाह ख़ामेनई ने एक गरीब लेकिन बहोत ही मुत्तक़ी घर में परवरिश पाई। उनके वालिद एक बा-अज़मत दीनी आलिम थे इसलिए रहबर-ए-इंक़ेलाब को भी इसी तरह की तरबियत मिली। जब उनकी उम्र 4 साल की हुई तब उन्होंने अपने बड़े भाई सय्यद मुहम्मद के साथ मकतब जाना शुरू किया और दर्स ए क़ुरआन हासिल करने लगे। दोनों भाइयो ने एक नए मदरसे में, जिसका नाम “दार अत-तालीमें दीनियात” था अपनी पढाई जारी रखी और प्राइमरी की पढाई पूरी करी।
अपनी हाई स्कूल के पढाई के दौरान, उन्होंने "जामे मुक़द्देमात" नामी किताब सिख ली जो अरबी अदबियात की बुनियादी किताब है। उनकी हाई स्कूल की पढाई के बाद आयतुल्लाह ख़ामेनई हौज़े ए इल्मिया में इल्म हासिल करने लगे जहा वो अपने वालिद और दीगर उलेमा के ज़ेरे नज़र इल्म ए दीन हासिल किया।
इल्म-ए-दीन की राह इख्तियार करने के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा, “इस राह की ओर मुझे आमादा करने वाली शख्सियत खुद मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार है। और मेरी वालिदा ने भी मुझे बहोत मदद करी और आगे बढ़ाया।"
आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "जामे-अल-मुक़द्देमात", "सेयुति" और "मुग़नी" जैसी किताबे "सुलेमान खान मदरसे" और "नवाब मदरसे" में पूरी करी। वहाँ वो दीगर उलेमा के साथ साथ अपने वालिद आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई की खास निगरानी में अपनी पढाई पूरी कर रहे थे। वहाँ उन्होंने एक अहम किताब “मुअल्लिम” भी मुकम्मल करी। बाद में उन्होंने “शरहे इस्लाम” और “शरहे लूमा” अपने वालिद, "आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई" और "आगा मिर्ज़ा मुदर्रिस यज़्दी" की निगरानी में पूरी की।
अपनी बकिया पढाई जिसमे "इल्मे उसूल" और "फिक़्ह" शामिल है, आपने अपने वालिद के ज़ेरे-एहतेमाम पूरी करी। इस तरह से उन्होंने अपनी इब्तिदाई पढाई बहोत जल्द और बा-हुनर तरीके से साढ़े पांच साल में मुकम्मल कर ली। आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई ने अपने बेटे की दीनी तरक़्क़ी की राह में बहोत बड़ा किरदार निभाया है।
आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "मंतिक़ और फलसफे" की पढाई की शुरुआत "मन्जुमह-ए-सब्ज़वारी" की सूरत में "मरहूम आयतुल्लाह मिर्ज़ा जवाद आगा तेहरानी" की ज़ेरे निगरानी करी और बक़िया पढाई "मरहूम शेख रिज़ा ऐसी" के साथ पूरी करी।
अपनी उम्र के 18 वे साल में आयतुल्लाह ख़ामेनई ने आखरी दर्जे की पढाई, दरसे ख़ारिज की शुरुआत मशहूर आलिम-ए-दीन और मरजा-ए-वक़्त "आयतुल्लाह मिलनी" के ज़ेरे-एहतेमाम मशहद में शुरू की।
1957 में नजफ़-ए-अशरफ और कर्बला-ए-मोअल्ला की ज़ियारत की नियत से आयतुल्लाह ख़ामेनई इराक तशरीफ़ ले गए, वह का दीनी माहोल और मुख्तलिफ उलेमा का दरस-ए-ख़ारिज देख कर उन्होंने नजफ़ में रहने का इरादा किया। नजफ़ में वो आयतुल्लाह मोहसिन हक़ीम, सय्यद महमूद शहरूदी, मिर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी, सय्यद याहया यज़्दी और मिर्ज़ा हसन बुजनुर्दी के दर्स में शिरकत करने लगे। लेकिन उनके वालिद ने उन्हें नजफ़ से वापस तलब कर लिया और फिर उन्हें कुछ वक़्त के बाद नजफ़ छोड़ना पड़ा और वह वापस ईरान आ गए।
1958 से 1964 तक आयतुल्लाह ख़ामेनई ने फिक़्ह और फलसफे की अपनी पढाई "हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम" में जारी रखी जहा उन्होंने बुज़ुर्ग उलेमा-ए-दीन जैसे "मरहूम आयतुल्लाह बुरुजर्दी, इमाम खोमैनी, शेख मुर्तज़ा हाइरी यज़्दी और अल्लामा तबतबाई" के क़दमों में इल्म हासिल किया।
1965 में अपने वालिद के खुतूत से उन्हें खबर मिली कि उनके वालिद की एक आँख की रौशनी मोतिया की वजह से चली गई है। अपने वालिद की खिदमत की खातिर आयतुल्लाह खेमेनेई ने फैसला लिया कि वो मशहद में जा कर अपने वालिद की खिदमत करेंगे और वही पर इल्म-ए-दीन भी हासिल करते रहेंगे।
इस सिलसिले में वे कहते है कि आज जो कुछ इज़्ज़त और शरफ अल्लाह ने मुझे दिया है उसकी सिर्फ एक ही वजह है और वो है मेरे वालदैन की खिदमत।
मशहद में उन्होंने अपनी दीनी पढाई "आयतुल्लाह मिलानी" की खिदमत में जारी रखी। इसी बीच वो दीगर मदरसो और यूनिवर्सिटी में दर्स भी लेते थे और दुसरो को पढ़ाते भी रहे।
रहबरे मोअज़्ज़म फ़िक़्ही मसाइल, इन्क़ेलाबी सोच और सियासती उसूल के मैदान में इमाम खोमैनी (र. अ) के खास और क़रीबी शागिर्दों में से एक थे। लेकिन उनके अंदर ज़ुल्म से नफरत और सियासत की चाहत "शहीद सय्यद मुज्तबा नवाब सफ़वी" की शख्सियत से मिली थी। 1952 में शहीद सफ़वी शहरे मशहद गए थे और वह पर एक तक़रीर को मुखातिब किया, इसी तक़रीर में आयतुल्लाह ख़ामेनई भी मौजूद थे और इस तक़रीर ने इंक़ेलाब की चिंगारी का आग़ाज़ किया।
1962 से आयतुल्लाह ख़ामेनई इन्क़ेलाबी मुहीम के साथ जुड़ गए जो इमाम खोमैनी के मातहत शुरू हो चुकी थी। इसी दौरान 1963 से इंक़ेलाब के तकमील तक वो इंक़ेलाब के साथ जुड़े रहे और साथ ही क़ुम और मशहद में अपने दर्स और तदरीस के सिलसिले को भी जारी रखा। इस दौरान वो 5 से 6 दफा जेल भी गए।
ख़ुसूसन 1972 से 1975 तक आगा के दर्से क़ुरआन और इस्लामी नज़रिये के दर्स में लोगो की भारी भीड़ रहती थी और ये मशहद की तीन मस्जिदो में ररखे जाते थे: मस्जिदे करामात, मस्जिदे इमाम हसन (अ) और मस्जिदे मिर्ज़ा जाफ़र। इसके साथ ही आगा के नहजुल बलाग़ाह के दर्स भी लोगो में खासे मशहूर थे और इन दर्स को जमा कर के एक किताबी शक्ल भी दी गई थी जिसे “The Glorious Nahjul Balagah" का नाम दिया गया।
1976 के आखिर में ज़ालिम पहलवी हुकूमत ने आयतुल्लाह ख़ामेनई को गिरफ्तार कर के तीन साल के लिए इरानशहर जिलावतन कर दिया। लेकिन 1979 के शुरुआत में हुकूमत के खिलाफ बढ़ते गुस्से और आंदोलन के चलते वे वापस मशहद आ गए और हुकूमत के खिलाफ वापस मोर्चा संभाल लिया। आगा के मुसलसल 15 साल की जददोजहद और पूरी ईरानी अवाम और इमाम खोमैनी की क़यादत के नतीजे में आखिरकार ज़ालिम शाह को ईरान छोड़ कर जाना पड़ा और ईरान में इस्लामी हुकूमत का क़ायम हुआ।
इंक़ेलाब के बाद भी रहबरे मोअज़्ज़म इस्लामी हुकूमत की खिदमत में लगे रहे और अपने कंधो पर ज़िम्मेदारी को अदा करते रहे। आप की ज़िन्दगी को हम इस तरह लिख सकते है:
- 4 साल की उम्र से पढाई का आग़ाज़
- 9 साल की उम्र में प्राइमरी की पढाई और क़ुरानी अदबियात
- 13 साल की उम्र में मदरसे की पढाई - क़ुरआन, अदबियात, मंतिक़ और फलसफे की पढाई
- 18 साल की उम्र से आयतुल्लाह मिलानी के ज़ेरे एहतेमाम दर्से ख़ारिज का आग़ाज़
- 19 साल की उम्र में नजफ़े अशरफ में बुज़ुर्ग उलेमा जैसे आयतुल्लाह मोह्सिनुल हाकिम और दीगर उलेमा के दर्स में शिरकत
- एक साल बाद (20 साल की उम्र में) ईरान वापसी और इमाम खोमैनी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी और दीगर उलेमा के क़यादत में 8 साल तक दर्से ख़ारिज और इज्तिहाद किया।
- 1964 से 1979 तक मशहद में आयतुल्लाह मिलानी के मदरसे में इज्तिहाद और दर्स का सिलसिला जारी रखा
- दीनी तालीम और तदरीस के साथ इन्क़ेलाबी मुहीम में अहम किरदार
- इंक़ेलाब के बाद आप की ज़िन्दगी:
- फेब्रुअरी 1979: इस्लामी इंक़ेलाब के बुनियादी हिस्से
- 1980 - Secretary of Defense.
- 1980 - Supervisor of the Islamic Revolutionary Guards.
- 1980 - Leader of the Friday Congregational Prayer.
- 1980 - The Tehran Representative in the Consultative Assembly.
- 1981 - Imam Khomeini’s Representative in the High Security Council.
- 1981 - Actively presents at the war front during the imposed war between Iran and Iraq.
- 1982 - Assassination attempt by the hypocrites on his life in the Abuthar masjid in Tehran.
- 1982 - Elected President of the Islamic Republic of Iran after martyrdom of Shaheed Muahmmad Ali Raja’i. This was his first term in office; all together he served two terms in office, which lasted until 1990.
- 1982 - chairman of the High Council of Revolution Culture Affairs.
- 1988 - President of the Expedience Council.
- 1990 - Chairman of the Constitution Revisal Comity.
- 1990 - इमाम खोमैनी (र. अ.)की रेहलत के बाद, मजलिसे खुबरागान के एक्जा फैसले से आयतुल्लाह ख़ामेनई ईरान के रहबरे मोअज़्ज़म के मक़ाम पर फ़ाएज़ हुए।
अल्लाह से दुआ है की वो रहबरे मोअज़्ज़म आयतुल्लाह ख़ामेनई का साया हमारे सरो पर क़ायम रखे और उनके दुश्मनो को निस्तो नाबूद करे।