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13 Jan 2015

Biography of Ayatullah Khamenei



आयतुल्लाह ख़ामेनई की सवानए हयात


आयतुल्लाह हाज सय्यद अली हुसैनी ख़ामेनई मरहूम आयतुल्लाह सय्यद जावद हुसैनी ख़ामेनई के फ़रज़न्द है। उनकी पैदाइश ईरान के मुक़द्दस शहर, मशहद में 17 जुलाई, 1939 को हुई।  सय्यद जावद ख़ामेनई  अपने ज़माने के दीगर उलेमा की मानिंद मेयानारवी की ज़िन्दगी बसर करते थे और इन्ही की बदौलत उनका  खानदान इनकेसरी और क़नाअत की ज़िन्दगी बसर करने का आदी रहा।

अपने पिदर ए बुज़ुर्गवार के घर में अपनी ज़िन्दगी को याद करते हुए आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनई फरमाते है: “मेरे वालिद एक मशहूर आलिम ए दीन थे, जो बहोत मुत्तक़ी थे और गोशनाशिनी की ज़िन्दगी जीना पसंद करते थे। हमारी ज़िन्दगी काफी मुश्किलो भरी थी।  मुझे याद है  कि हमारी कई राते बिना खाने के गुज़र जाती थी। मेरी वालिदा कोशिश करती और जो कुछ जमा कर पाती वो हमें खाने में मिलता और बहोत दफा वो सिर्फ रोटी और थोड़ी सी दाल होती थी।”

“मेरे वालिद का घर, जहा मेरी पैदाइश हुई और मैंने अपना बचपन गुज़ारा, वो एक छोटा सा मकान था, जो मशहद के गरीब इलाक़े में था। घर में सिर्फ  एक ही कमरा था और एक तहखाना था।  हमारे वालिद कहते थे की लोग आलिम के घर दीनी मशविरे और मदद के लिए आते है और उन्हें किसी क़िस्म की तकलीफ नहीं पहुचनी चाहिए। इसलिए अगर घर में कोई मेहमान हमारे वालिद से मिलने आते, तो हम तहखाने में चले जाते थे।  कुछ वक़्त बाद, हमारे वालिद के कुछ दोस्तों ने पड़ोस का एक कमरा उन्हें हदिया किया और इस तरह हमारा माकन कुछ बड़ा हुआ।

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने एक गरीब लेकिन बहोत ही मुत्तक़ी घर में परवरिश पाई। उनके वालिद एक बा-अज़मत दीनी आलिम थे इसलिए रहबर-ए-इंक़ेलाब को भी इसी तरह की तरबियत मिली। जब उनकी उम्र 4 साल की हुई तब उन्होंने अपने बड़े भाई सय्यद मुहम्मद के साथ मकतब जाना शुरू किया और दर्स ए क़ुरआन हासिल करने लगे। दोनों भाइयो ने एक नए मदरसे में, जिसका नाम “दार अत-तालीमें दीनियात” था अपनी पढाई जारी रखी और प्राइमरी की पढाई पूरी करी। 


अपनी हाई स्कूल के पढाई के दौरान, उन्होंने "जामे मुक़द्देमात" नामी किताब सिख ली जो अरबी अदबियात की बुनियादी किताब है। उनकी हाई स्कूल की पढाई के बाद आयतुल्लाह ख़ामेनई हौज़े ए इल्मिया में इल्म हासिल करने लगे जहा वो अपने वालिद और दीगर उलेमा के ज़ेरे नज़र इल्म ए दीन हासिल किया।  

इल्म-ए-दीन की राह इख्तियार करने के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा, “इस राह की ओर मुझे आमादा करने वाली  शख्सियत खुद मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार है।  और मेरी वालिदा ने भी मुझे बहोत मदद करी और आगे बढ़ाया।"

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "जामे-अल-मुक़द्देमात", "सेयुति" और "मुग़नी" जैसी किताबे "सुलेमान खान मदरसे" और "नवाब मदरसे" में पूरी करी। वहाँ वो दीगर उलेमा के साथ साथ अपने वालिद आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई  की खास निगरानी में अपनी पढाई पूरी कर रहे थे। वहाँ उन्होंने एक अहम किताब “मुअल्लिम” भी मुकम्मल करी। बाद में उन्होंने “शरहे इस्लाम” और “शरहे लूमा” अपने वालिद, "आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई" और "आगा मिर्ज़ा मुदर्रिस यज़्दी" की निगरानी में पूरी की।

अपनी बकिया पढाई जिसमे "इल्मे उसूल" और "फिक़्ह" शामिल है, आपने अपने वालिद के ज़ेरे-एहतेमाम पूरी करी। इस तरह से उन्होंने अपनी इब्तिदाई पढाई बहोत जल्द और बा-हुनर तरीके से साढ़े पांच साल में मुकम्मल कर ली। आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई ने अपने बेटे की दीनी तरक़्क़ी की राह में बहोत बड़ा किरदार निभाया है।   

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "मंतिक़ और फलसफे" की पढाई की शुरुआत "मन्जुमह-ए-सब्ज़वारी" की सूरत में "मरहूम आयतुल्लाह मिर्ज़ा जवाद आगा तेहरानी" की ज़ेरे निगरानी करी और बक़िया पढाई "मरहूम शेख रिज़ा ऐसी" के साथ पूरी करी।

अपनी उम्र के 18 वे साल में आयतुल्लाह ख़ामेनई ने आखरी दर्जे की पढाई, दरसे ख़ारिज की शुरुआत मशहूर आलिम-ए-दीन और मरजा-ए-वक़्त "आयतुल्लाह मिलनी" के ज़ेरे-एहतेमाम मशहद में शुरू की।

1957 में नजफ़-ए-अशरफ और कर्बला-ए-मोअल्ला की ज़ियारत की नियत से आयतुल्लाह ख़ामेनई इराक  तशरीफ़ ले गए, वह का दीनी माहोल और मुख्तलिफ उलेमा का दरस-ए-ख़ारिज देख कर उन्होंने नजफ़ में रहने का इरादा किया। नजफ़ में वो आयतुल्लाह मोहसिन हक़ीम, सय्यद महमूद शहरूदी, मिर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी, सय्यद याहया यज़्दी और मिर्ज़ा हसन बुजनुर्दी के दर्स में शिरकत करने लगे। लेकिन उनके वालिद ने उन्हें नजफ़ से वापस तलब कर लिया और फिर उन्हें कुछ वक़्त के बाद नजफ़ छोड़ना पड़ा और वह वापस ईरान आ गए।

1958 से 1964 तक आयतुल्लाह ख़ामेनई ने फिक़्ह और फलसफे की अपनी पढाई "हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम" में जारी रखी जहा उन्होंने बुज़ुर्ग उलेमा-ए-दीन जैसे "मरहूम आयतुल्लाह बुरुजर्दी, इमाम खोमैनी, शेख मुर्तज़ा हाइरी यज़्दी और अल्लामा तबतबाई" के क़दमों में इल्म हासिल किया।

1965 में अपने वालिद के खुतूत से उन्हें खबर मिली कि  उनके वालिद की एक आँख की रौशनी मोतिया की वजह से चली गई है। अपने वालिद की खिदमत की खातिर आयतुल्लाह खेमेनेई ने फैसला लिया कि वो मशहद में जा कर अपने वालिद की खिदमत करेंगे और वही पर इल्म-ए-दीन भी हासिल करते रहेंगे।

इस सिलसिले में वे कहते है कि आज जो कुछ इज़्ज़त और शरफ अल्लाह ने मुझे दिया है उसकी सिर्फ एक ही  वजह है और वो है मेरे वालदैन की खिदमत।

मशहद में उन्होंने अपनी दीनी पढाई "आयतुल्लाह मिलानी" की खिदमत में जारी रखी। इसी बीच वो दीगर मदरसो और यूनिवर्सिटी में दर्स भी लेते थे और दुसरो को पढ़ाते भी रहे।

रहबरे मोअज़्ज़म फ़िक़्ही मसाइल, इन्क़ेलाबी सोच और सियासती उसूल के मैदान में इमाम खोमैनी (र. अ) के खास और क़रीबी शागिर्दों में से एक थे। लेकिन उनके अंदर ज़ुल्म से नफरत और सियासत की चाहत "शहीद सय्यद मुज्तबा नवाब सफ़वी" की शख्सियत से मिली थी। 1952 में शहीद सफ़वी शहरे मशहद गए थे और वह पर एक तक़रीर को मुखातिब किया, इसी तक़रीर में आयतुल्लाह ख़ामेनई भी मौजूद थे और इस तक़रीर ने इंक़ेलाब  की चिंगारी का आग़ाज़ किया।



1962 से आयतुल्लाह ख़ामेनई इन्क़ेलाबी मुहीम  के साथ जुड़ गए जो इमाम खोमैनी के मातहत शुरू हो चुकी थी। इसी दौरान 1963 से इंक़ेलाब के तकमील तक वो इंक़ेलाब के साथ जुड़े रहे और साथ ही क़ुम और मशहद में अपने दर्स और तदरीस के सिलसिले को भी जारी रखा। इस दौरान वो 5 से 6 दफा जेल भी गए।

ख़ुसूसन 1972 से 1975 तक आगा के दर्से क़ुरआन और इस्लामी नज़रिये के दर्स में लोगो की भारी भीड़ रहती थी और ये मशहद की तीन मस्जिदो में ररखे जाते थे: मस्जिदे करामात, मस्जिदे इमाम हसन (अ) और मस्जिदे मिर्ज़ा जाफ़र। इसके साथ ही आगा के नहजुल बलाग़ाह के दर्स भी लोगो में खासे मशहूर थे और इन दर्स को जमा कर के एक किताबी शक्ल भी दी गई थी जिसे “The Glorious Nahjul Balagah" का नाम दिया गया।



 1976 के आखिर में ज़ालिम पहलवी हुकूमत ने आयतुल्लाह ख़ामेनई को  गिरफ्तार कर के तीन साल  के लिए इरानशहर जिलावतन कर दिया। लेकिन 1979 के शुरुआत में हुकूमत के खिलाफ बढ़ते गुस्से और आंदोलन के चलते वे वापस मशहद आ गए और हुकूमत के खिलाफ वापस मोर्चा संभाल लिया। आगा के मुसलसल 15 साल की जददोजहद और पूरी ईरानी अवाम और इमाम  खोमैनी की क़यादत के नतीजे में आखिरकार ज़ालिम शाह को ईरान छोड़ कर जाना पड़ा और ईरान में इस्लामी हुकूमत का क़ायम हुआ।

इंक़ेलाब के बाद भी रहबरे मोअज़्ज़म इस्लामी हुकूमत की खिदमत में लगे रहे और अपने कंधो पर ज़िम्मेदारी को अदा करते रहे। आप की ज़िन्दगी को हम इस तरह लिख सकते है:

  • 4 साल की उम्र से पढाई का आग़ाज़
  • 9 साल की उम्र में प्राइमरी की पढाई और क़ुरानी अदबियात
  • 13 साल की उम्र में मदरसे की पढाई  - क़ुरआन, अदबियात, मंतिक़ और फलसफे की पढाई
  • 18 साल की उम्र से आयतुल्लाह मिलानी के ज़ेरे एहतेमाम दर्से ख़ारिज का आग़ाज़
  • 19 साल की उम्र में नजफ़े अशरफ में बुज़ुर्ग उलेमा जैसे आयतुल्लाह मोह्सिनुल हाकिम और दीगर उलेमा के दर्स में शिरकत
  • एक साल बाद (20 साल की उम्र में) ईरान वापसी और इमाम खोमैनी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी और दीगर उलेमा के क़यादत में 8 साल तक दर्से ख़ारिज और इज्तिहाद किया।
    •  1964 से 1979 तक मशहद में आयतुल्लाह मिलानी के मदरसे में इज्तिहाद और दर्स का सिलसिला जारी रखा
  • दीनी तालीम और तदरीस के साथ इन्क़ेलाबी मुहीम में अहम किरदार 

  • इंक़ेलाब के बाद आप की ज़िन्दगी:
    • फेब्रुअरी 1979: इस्लामी इंक़ेलाब के बुनियादी हिस्से
    • 1980 - Secretary of Defense.
    • 1980 - Supervisor of the Islamic Revolutionary Guards.
    • 1980 - Leader of the Friday Congregational Prayer.
    • 1980 - The Tehran Representative in the Consultative Assembly.
    • 1981 - Imam Khomeini’s Representative in the High Security Council.
    • 1981 - Actively presents at the war front during the imposed war between Iran and Iraq.
    • 1982 - Assassination attempt by the hypocrites on his life in the Abuthar masjid in Tehran.
    • 1982 - Elected President of the Islamic Republic of Iran after martyrdom of Shaheed Muahmmad Ali Raja’i. This was his first term in office; all together he served two terms in office, which lasted until 1990.
    • 1982 - chairman of the High Council of Revolution Culture Affairs.
    • 1988 - President of the Expedience Council.
    • 1990 - Chairman of the Constitution Revisal Comity.
    • 1990 -  इमाम खोमैनी (र. अ.)की रेहलत के बाद, मजलिसे खुबरागान के एक्जा फैसले से आयतुल्लाह ख़ामेनई ईरान के रहबरे मोअज़्ज़म के मक़ाम पर फ़ाएज़ हुए। 

       
      अल्लाह से दुआ है की वो रहबरे मोअज़्ज़म आयतुल्लाह ख़ामेनई का साया हमारे सरो पर क़ायम रखे और उनके दुश्मनो को निस्तो नाबूद करे।

4 Dec 2014

Taqleed - Ummat ki Aham Zimmedari

तक़लीद - उम्मत की अहम ज़िम्मेदारी


हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत ए तशय्यो में एक ज़िम्मेदाराना बदलाव देखने में आ रहा है. लोग कई बातो पर इल्मी बहस करते दिखाई दिए और सोशल नेटवर्क साइट्स पर भी एक ज़िम्मेदाराना गुफ्तगू का आग़ाज़ हुआ है।

ज़्यादातर लोग क़ुम के ओलमा की अंजुमन “जामे मुदर्रिसीन” के बारे में इल्म हासिल करने की कोशिश करते दिखे वही पर लोग ओलमा की तरफ से शाया दीनी मरजा की फेहरिस्त पर भी गुफ्तगू करते दिखाई दिए।

अल्लाह के फ़ज़लो करम से मौलाना के ख़ुत्बे ने तक़लीद और मरजईयत को हिंदुस्तान में, ख़ुसूसन मुंबई में, एक नया जोश और रास्ता दिया है।

अभी तक लोग इस बात से ग़ाफ़िल थे कि  हमारे ओलमा इस तरह का इज्तेमाई फैसला भी लेते है और ऐसी कोई ओलमा की अंजुमन भी है जो अवाम के बारे में इतना सोचती है और उसके मुताबिक़ फैसले भी लेती है।

अल्हम्दुलीलाह मौलाना ने अपने ख़ुत्बे  में इस बात को वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर कर के लोगो को सोचने और इस सिम्त में आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिया है। इस चीज़ से ख़ुसूसन क़ौम के नौजवान काफी जोश और जज़्बे के साथ इल्मी गुफ्तगू में आगे दिखाई दे रहे है।

एक तरफ जहाँ क़ौम को मरजईयत से दूर ले जाने की कोशिश की जा  रही है और साथ में कई सारे शक  और शुबे नौजवानो के ज़हन में डाले जा रहे है, मसलन:

  • एक मुजतहिद जिसे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा का दर्जा दिया है, उसे मुजतहिद न समझना
  • दूसरे मुजतहिद जिन्हे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है उनकी तक़लीद करना
  • अगर किसी आम इंसान को समझ नहीं आ रहा है कि आलम कौन है, तो  वह इंसान किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करे
  • और बहोत से सवलात

लेकिन अल्लाह के फज़ल से, मौलाना आबेदी ने अपने जुमे के ख़ुत्बे में इन सब बातो को एक बुनियादी बात से रद्द कर दिया कि मरजा कोई भी मुजतहिद नहीं बन सकता, जब तक जामे मुदर्रिसीन उस मुजतहिद को मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं कर लेती।

अब सवाल ये उठता है कि लोग अपनी मनघडत बातो को दीन का हिस्सा कैसे बना लेते है? और इन गलत फ़हमियों को कैसे दूर किया जाए?

जिस तरह से मौलाना अहमद अली आबेदी साहब ने आगे बढ़ कर क़ौम के दर्द और ज़रूरत को समझा और एक अहम मसला लोगो के सामने पेश किया, ओलमा को चाहिए कि वो भी इसी तरह अवामुन्नास के ज़रूरी मसाइल को समझ कर खुलके बात करे।

हालांके मौलाना आबेदी साहब ने अपने ख़ुत्बे के आखरी हिस्से में चंद  दीगर मुजतहिद के नाम भी लिए थे, जो की क़ाबिले एहतेराम मुजतहिद और ओलमा है, लेकिन जामे मुदर्रिसीन ने उन्हें मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है।

ये आज अहम चीज़ है की हम इस मसले की अहमियत को समझे और बारीकी से इसका मुतालेआ करे कि क्या किसी ग़ैर मुजतहिद को ये हक़ बनता है कि वो मरजा का अपने मन से ऐलान करे? क्या किसी राह चलते आम आदमी को ये इख्तियार है कि वो जिसे चाहे अपना मरजा मान ले और दुसरो को भी उसे मानने को कहे?

ऐसी कई चीज़े है जो क़ौम को आगे बढ़कर सीखनी होगी और आगे आने वाली नस्लों तक तक़लीद की अज़ीम नेमत पहुचानी  होगी।

एक और मसला आजकल कुछ लोग आम कर रहे है वो ये है कि ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करो जिसके मसले मेरे मन से ज़्यादा मिलते है। मसलन अगर मै चाहता हु कि बैंक का सुद (interest) इस्तेमाल करू और फ़र्ज़ करे की आलम उसे हराम जानता है, तो मै किसी ऐसे मुजतहिद को तलाश करू जो उसे जायज़ जाने और फिर मै उसकी तक़लीद करू। ये हरकत बिलकुल गलत है और असलन फिकरे मरजईयत के खिलाफ है।

अस्ल में हमें चाहिए कि आलम को तलाश करे और उसके मसाइल के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करे।

अल्लाह का करम और अहसान है की उसने हमें ज़िम्मेदार और बबसीरत ओलमा से नवाज़ा है जो क़ौम की ज़रूरत समझ कर मसाइल को पेश करते है।

अल्लाह हमें अपने  ओलमा की पैरवी करने की तौफ़ीक़ अता करे और हमारे मुज्तहेदीन ओ ओलमा की हमेशा हिफाज़त करे।

इलाही आमीन

3 Dec 2014

Marja-e-Taqleed aur Zaruri Malumaat



मरजा ए तक़लीद और ज़रूरी मालूमात 


जैसा के हम सब जानते है के आज कल हिंदुस्तान के शिओ में तक़लीद को  ले कर काफी सारी फ़िक्रे उभर रही है, इस को हल करने की कोशिश आली जनाब हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सय्यद अहमद अली आबेदी साहब ने अपने पिछले हफ्ते (28/11/2014)  खोजा मस्जिद, डोंगरी, मुंबई के जुमे के ख़ुत्बे में की. 

मौलाना आबेदी ने अपने ख़िताब का आग़ाज़ में लोगो को ईरान के शहर, क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा की अंजुमन, “जामा ए मुदर्रिसीन”, से आश्ना कराया और इस बात पर ज़ोर दिया की ये रस्ते पर चलने वाले लोगो की नहीं बल्कि हक़ीक़तन बुज़ुर्ग ओलमा की जमाअत है. 
मौलाना आबेदी साहब के बक़ौल, जामे मुदर्रिसीन क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा जिसमे आयतुल्लाह मकरेम शिराज़ी, आयतुल्लाह सफी गुलपैगानी, आयतुल्लाह नूरी हमदानी, आयतुल्लाह ख़ामेनई और  दीगर  मुज्तहेदीन की जमात है. इस जमात का एक अहम काम है कि सारी दुनिया के लिए “आलम” का इन्तेखाब है.


आलमकौन होता है? और क्या हमें उसे जान कर मानना ज़रूरी है?

फ़िक्रे मरजईयत के मुताबिक़ हर शिया के लिए दीनी कामियाबी के तीन राहे हल है:

  1. खुद इज्तिहाद करे और मुजतहिद बने (दिनी पढाई कर के)
  2. एहतियात पर अमल करे (ये काफी मुश्किल अमल है जिसमे हमे सारे बुज़ुर्ग मुजतहिद के फतवो को सामने  रखते हुए सबसे मुश्किल फतवे पर अमल करना होता है)
  3. ऐसे शख्स की तरफ रुजू करे (तक़लीद करे) जो दिनी लिहाज़ से सबसे ज़्यादा  इल्म रखता हो

यहाँ पर हमे इस बात की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है की अवाम कैसे जान सकती  कि सबसे ज़्यादा  इल्म किस आलिम के पास है?

इस सवाल को हल करने के लिए जामे मुदर्रिसीन काम करती है. क़ौम के बुज़ुर्ग ओलमा एक साथ जमा हो कर फैसला करते है कि कौन कौन  मुजतहिद मरजा बनने के दर्जे पर फ़ाइज़ होते है.  फिर इन ओलमा के नामो का  अवाम में ऐलान किया जाता है.

जामे मुदर्रिसीन ने जो फेहरिस्त आज अवाम को दी है उनमे इन मुज्तहेदीन के नाम है:

  1. आयतुल्लाह सीस्तानी (द अ)
  2. आयतुल्लाह ख़ामेनई (द अ)
  3. आयतुल्लाह मकारेम शिराज़ी (द अ)
  4. आयतुल्लाह नूरी हमदानी (द अ)
  5. आयतुल्लाह ज़न्जानी (द अ)
  6. आयतुल्लाह साफी गुलपैगानी (द अ)
  7. आयतुल्लाह वहीद खोरासानी (द अ)

इस फेहरिस्त को तैयार करते वक़्त बहोत सारे मुज्तहेदीन के नामो पर गौरोफिक्र की जाती  है और काफी बहसों तज़्कीरे के बाद फैसला लिया जाता है; ताकि शिया क़ौम अपने “आलम” को पहचान कर सही शख्स की तक़लीद कर सके.

यहाँ एक और सवाल उठता है, क्या हम इस फेहरिस्त से हट कर किसी और की तक़लीद कर सकते है?

ये सवाल करने से पहले हमे सोचना चाहिए कि जिस शख्स को हम तक़लीद के लायक समझते है उनका नाम भी जामे मुदर्रिसीन के पास गया होगा जिस पर बहसों तज़्कीरे के बाद उसे रद्द किया गया हो. जामे मुदर्रिसीन किसी अहल को उस मक़ाम पर पहुचने से नहीं रोकती इसलिए हमें चाहिए कि  हम इस ओलमा की जमात  (जामे मुदर्रिसीन) पर अपना भरोसा क़ायम रखे और इनके दिए हुए मराजेइन की फेहरिस्त में से किसी मरजा की तक़लीद करे.

अगर हमारे पास किसी और मुजतहिद की जानकारी और हम समझते है की वो मरजा होने के लायक है तो ये हमारा फ़रीज़ा है कि इसकी इत्तेला हम जामे मुदर्रिसीन को दे और ये साबित करे कि उस मुजतहिद का इल्मी  मेयार काफी बुलंद है; जो जामे की नज़रो से छुपा रह गया; जिसके बाद जामे  मुदर्रिसीन उस नाम पर फिर से गौरोफिक्र कर सकती है. अपने मन से किसी  मुजतहिद का इंतेखाब करके जामे ओलमा की दी हुई फेहरिस्त को नज़रअंदाज़ करना गलत काम होगा.

इसके साथ ही मौलाना आबेदी ने एक अहम पहलु की तरफ भी हमे आगाह कराया की अगर  किसी मसले में हमारा मरजा कोई फतवा  सादिर नहीं करता है, तो इस जगह हम किसी भी मुजतहिद  की बात नहीं मान सकते; बल्कि जिन मुज्तहेदीन की फेहरिस्त जामे मुदर्रिसीन ने दी उन्ही में से किसी / दूसरे दर्जे के मुजतहिद की बात पर अमल करना ज़रूरी होगा।

अल्लाह हम सब को इन ज़रूरी बातो पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करे ताकि हमारा ज़रूरी अमल  “तक़लीद” अच्छी तरह से मुकम्मल हो सके.

अल्लाह पूरी शिया क़ौम को अपने बुज़ुर्ग ओलमा ए दीन पर मुकम्मल भरोसा   करने की और उनके दीनी फरमान पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फर्माए.

अल्लाह हमें एक बनकर उसके दीन पर मुकम्मल तौर पर अमल पैरा होने की ताक़त और क़ूवत दे ताकि हम अपने ज़माने की इमाम के  जल्द ज़हूर के लिए काम कर सके.

इन सब का सिला अल्लाह हमें अपने वली-ए-हुज्जत वली-ए-अम्र इमाम महदी (अ) के ज़हूर की शक्ल में अता फर्माए.

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