करबला के वाक़ये को देखा जाए तो हर एक शहीद अपनी जान देने
के लिए तैयार नज़र आता है. शबे आशूर सभी माएं और बहने अपने बच्चो और भाइयो की हौसला
अफ़ज़ाई करती नज़र आती है की दीं की हिफाज़त के लिए जान देने में किसी भी तरह की कोताही
ना होने पाए.
लेकिन जब हम अपनी मजलिसो और नौहों पर नज़र डालते है तो
ऐसा महसूस होता है की हर शहीद अपने ज़ख्मो से ग़मज़दा है और औरते अपने बच्चो को खून में
लथपथ देख कर रंज और सदमे में है.
कही कोई जनाबे अली अकबर को दूल्हा बना देखना चाह रहा
है तो कोई जनाबे कासिम की शादी होती देख रहा है; यह रोज़े आशूर की हक़ीक़त से कोसो दूर है और करबला के पैग़ाम के साथ नाइंसाफी है.