यमन के हालात और हमारा किरदार
मुस्लमान और ख़ुसूसन शिया होने के नाते यह हमारा फ़रीज़ा है की दुनिया में हो रहे हालात से बा-खबर रहे और ये देखे की आज की तारीख में हमारा क्या फ़रीज़ा है। इमाम अली (अ) अपनी वसीयत में हम से मुखातिब हो कर फरमाते है कि "हमेशा मज़्लूमिन के साथ रहो और ज़ालिम के खिलाफ"।
आइये हम अपने आप पर एक नज़र डाले की आज हम इमाम (अ) की वसीयत पर अमल कर रहे या नहीं?
सऊदी अरब ने आज से तक़रीबन दो हफ्ते पहले यमन पर हमला किया और हमले आज तक जारी है। इन हमलों में 2500 मासूमो की जाने चली गई और न जाने कितने शदीद ज़ख़्मी हुए। इंडियन मीडिया ने यमन के हालात को कवर तो किया लेकिन सिर्फ इस हद तक की यमन में फ़से भारतीय वापस अपने वतन पहुंच जाए। खुदा का करम हुआ की उसने सभी भारतीयो को यमन से निकलने का मौक़ा दिया। लेकिन इससे हक़ीक़ी हालात नहीं बदले। यमन अभी भी वैसा ही है।
यमन में अभी भी मासूम बच्चे और अवाम शहीद हो रहे है। इतना ही नहीं, सऊदी ने हाई डेंसिटी स्क्वाड बोम्ब्स का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है जिसकी वजह से भारी तबाही मची हुई है।
हमारा रवैय्या देखे तो पता चल रहा है की यमन में कुछ भी हो, हमें इससे क्या? मुंबई के खोजा शिया इस्ना अशरी हज़रात जमात के इलेक्शंस में बिजी है। दोनों पार्टियो को कैंपेनिंग करने से फुर्सत नहीं। ऐसे में जमात के प्लेटफार्म पर यमन की बात करना भैस के आगे बीन बजाने जैसा है। याद रहे, यही वो जमात है जिसने बहरैन के मौज़ू पर आज़ाद मैदान में पुरज़ोर एहतेजाज किया था। लेकिन आज जैसे यमन में मुस्लमान और शिया रहते ही न हो।
खोजा जमात इलेक्शंस में मसरूफ है, लेकिन दूसरे लोग जो खोजा नहीं है, उन्हें क्या हो गया है? वह तो मसरूफ नहीं। अपनी ज़िन्दगी में हमें इतना भी बिजी नहीं हो जाना चाहिए की अगर मज़लूम मदद के लिए आवाज़ उठाए तो कान पर जू तक ना रेंगे।
इसके साथ ही जब हम उलेमा की जानिब देखते है तो वहा भी सन्नाटा नज़र आ रहा है। उलेमा उम्मत के रहबर है, और रहबर का काम है की उम्मत को सही राह की तरफ आमादा करे। अगर जमात इलेक्शंस में मसरूफ है तो उलेमा अपने मजलिसों और बयानों से उम्मत का ध्यान अस्ल मुद्दे पर लाने की कोशिश करे, ऐसा करने से ना सिर्फ उलेमा का उम्मत में वक़ार बढ़ेगा, बल्कि उम्मत को रहबर के पीछे चलने की आदत होगी।
पिछले कुछ हफ्तों के मरकज़ी जुमे के पॉइंट्स पर नज़र डाले तो यमन का ज़िक्र तक नहीं मिलता। ऐसे में उम्मत किस्से तवक़्क़ो करे जो उसे राह दिखाए। जुमा एक मरकज़ी हैसियत रखता है और उम्मत की ट्रेनिंग के लिए एक बेहतरीन प्लेटफार्म है। हमारे आइम्मा (अ) ने खास तौर पर कहा है की दूसरे ख़ुत्बे में सियासी पहलु पर नज़र डाले, ताकि उम्मत जान सके की दुनिया में क्या हो रहा है और उम्मत का फ़रीज़ा क्या है।
इस सुकूत के नतीजे में कई लोग यमन पर हमले को शिया सुन्नी जंग की नज़र से देखने पर मजबूर है, जो की वेस्टर्न मीडिया की एक चाल है। क़ौम के कुछ नौजवान जो व्हाट्स एप पर शिया न्यूज़ चैनल चलाते है खास तौर पर यमन तनाव को शिया सुन्नी जंग के रुप में पेश कर रहे है। ये उलेमा के इस मौज़ू पर सुकूत के गलत नतीजे की एक मिसाल है।
आज के दौर के ज़ुल्म के खिलाफ इस तरह का सन्नाटा नाक़ाबिले बर्दाश्त है और हमें याद रखना चाहिए की ज़ियारतों में तो "सकित (खामोश)" गिरोह पर खुदा की लानत की गई है वो इसी तरह के सुकूत में गिरफ्तार रहे थे।
यमन के मज़लूम बच्चे सऊदी और अमेरिका के बोम्ब्स का शिकार हो रहे है और क़ौम इलेक्शंस के खानो में मस्त है। पार्टियां कम्पैनिंग कर रही हैं। जिससे पूछो वो यही कहता फिर रहा है की ये जीतेगा की वो। मालूम पढता है जैसे दुनिया इसी मुद्दे पर घूम रही हो। और इन सब के दरमियान जुमे के ख़ुत्बे में यमन का ज़िक्र तक ना आना दिखता है की हम कहाँ जा रहे है।
हमें याद रखना चाहिए की खुदा सब का इम्तिहान लेता है। कभी माल से, कभी औलाद से, कभी फुरसत दे कर, कभी मरतबा दे कर। आज हमारे पास मौक़ा है की अपने पहले इमाम, इमाम अली (अ) की वसीयत पर अमल कर के मज़्लूमिन से अपनी हिमायत का ऐलान करे और ज़ालिम से बेज़ारी का इज़हार।
खुदा पकड़ने में बड़ा सख्त हैं। उसने साफ़ कह दिया है कि "अल्लाह उस क़ौम की हालत उस वक़्त तक नहीं बदलता, जब तक क़ौम खुद अपनी हालत बदलने पर आमादा नहीं हो जाती।"
उसने हमें नेमतें दी, वक़्त दिया, आज़ादी दी, अपनी बात कहने की आज़ादी, भारत जैसे मुल्क में पैदा किया जहा हम एहतेजाज कर सकते है, लेकिन हमने इस नेमत के बदले में क्या दिया? सुकूत; ख़ामोशी; बेज़ारी; और ना जाने क्या?
2500 मासूम लाशें पुकार पुकार कर आवाज़ दे रहे हैं, कहाँ है वो जो कहते है की हमारा पहला इमाम अली (अ) है? क्यों वो अपने इमाम की वसीयत पर अमल नहीं करते? क्या हमारा नाहक़ खून उन्हें दिखाई नहीं देता? क्या उन्होंने सय्यद हसन नसरल्लाह, इमाम ख़ामेनई और दीगर ओलमा के बयानात नहीं सुने, जिनमे वो पुकार पुकार कर कह रहे है की मज़्लूमिन की हिमायत में हमेशा आवाज़ बुलंद करो और ज़ालिम के मुक़ाबिल बेज़ारी का इज़हार।
हमारा आज फ़रीज़ा है की अपना सुकूत तोड़े, रोज़मर्रा कछवे की चाल वाली ज़िन्दगी से बहार आए। इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों से पूछे की अगर वे जीत कर आएगें तो क्या ज़लिमिन के खिलाफ आवाज़ उठाएगे? उलेमा से उनके सुकूत की वजह पूछे? याद रहे सवाल पूछना बेइज़्ज़ती नहीं है? अदब के दायरे का खास ख्याल रहे। आज हम उठेंगे और सवाल करेंगे तो इंशाल्लाह आने वाली नस्लो तक ये सबक़ जाएंगा की ख़ामोशी और सुकूत कभी राहे हल है ही नहीं .
आइये हम अपने आपको बदले, हमारे समाज को बदले, अपनी सोच को बदले, इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों की जेहनियत को बदले, उलेमा को ये यक़ीन दिलाए की हम तैयार है; आप आवाज़ तो बुलंद करे; आइये सब मिलकर एक क़दम बढ़ाए एक असली इमाम (अ) के मानने वाले बने।
उसने हमें नेमतें दी, वक़्त दिया, आज़ादी दी, अपनी बात कहने की आज़ादी, भारत जैसे मुल्क में पैदा किया जहा हम एहतेजाज कर सकते है, लेकिन हमने इस नेमत के बदले में क्या दिया? सुकूत; ख़ामोशी; बेज़ारी; और ना जाने क्या?
2500 मासूम लाशें पुकार पुकार कर आवाज़ दे रहे हैं, कहाँ है वो जो कहते है की हमारा पहला इमाम अली (अ) है? क्यों वो अपने इमाम की वसीयत पर अमल नहीं करते? क्या हमारा नाहक़ खून उन्हें दिखाई नहीं देता? क्या उन्होंने सय्यद हसन नसरल्लाह, इमाम ख़ामेनई और दीगर ओलमा के बयानात नहीं सुने, जिनमे वो पुकार पुकार कर कह रहे है की मज़्लूमिन की हिमायत में हमेशा आवाज़ बुलंद करो और ज़ालिम के मुक़ाबिल बेज़ारी का इज़हार।
हमारा आज फ़रीज़ा है की अपना सुकूत तोड़े, रोज़मर्रा कछवे की चाल वाली ज़िन्दगी से बहार आए। इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों से पूछे की अगर वे जीत कर आएगें तो क्या ज़लिमिन के खिलाफ आवाज़ उठाएगे? उलेमा से उनके सुकूत की वजह पूछे? याद रहे सवाल पूछना बेइज़्ज़ती नहीं है? अदब के दायरे का खास ख्याल रहे। आज हम उठेंगे और सवाल करेंगे तो इंशाल्लाह आने वाली नस्लो तक ये सबक़ जाएंगा की ख़ामोशी और सुकूत कभी राहे हल है ही नहीं .
आइये हम अपने आपको बदले, हमारे समाज को बदले, अपनी सोच को बदले, इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों की जेहनियत को बदले, उलेमा को ये यक़ीन दिलाए की हम तैयार है; आप आवाज़ तो बुलंद करे; आइये सब मिलकर एक क़दम बढ़ाए एक असली इमाम (अ) के मानने वाले बने।