“नस्ल
और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!”
अल
काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने मक्का फतह किया तो
आप कोहे सफा पर तशरीफ़ लाए गए और फ़रमाया:
ऐ
बनी हाशिम! ऐ बनी अब्दुल मुत्तलिब, मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का रसूल हूँ, और मैं
तुम्हारा शफीक़ और दिल्सोज़ हूँ, मुझे तुम से मुहब्बत है – लिहाज़ा यह मत कहो के
मुहम्मद (स) हम से हैं – अल्लाह की क़सम तुम (बनी हाशिम) में से और दीगर (काबिल ओ
अक्वाम) में से मुत्तक़ीन के सिवा मेरा कोई दोस्त नहीं हैं.
जान
लो; मैं तुम्हें रोज़े महशर नहीं पहचानुगा क्यों की तुम ने दुनिया की मुहब्बत को
दोष पर स्वर किया होगा जब के दीगर लोगों ने आखिरत को दोष पर उठाया होगा.
याद रखो! मैंने अपने
और तुम्हारे दरमियान, और अल्लाह और तुम्हारे दरमियान किसी किस्म का उज्र और बहाना
नहीं छोड़ा – मेरे ज़िम्मे मेरा अमल है और तुम्हारे ज़िम्मे तुम्हारा अमल है.
(Al Kafi vol, 8, pg. 182, sifat us shia, hadith
Rijal ul
Hadith: Is hadith k tamam Raavi SIQQA hein.
फवाएद अल हदीस:
इस्लाम ही वो वाहिद
मज़हब है जो ज़ात पाक की नफी करते हुए तक्वा ओ परहेज़गारी को फजीलत ओ बरतरी की निशानी
कहता है. किसी भी नस्ल को किसी नस्ल पर बरतरी हासिल नहीं है, मेयार खून और नस्ल
नहीं बल्कि तक्वा और परहेज़गारी है. मोमिन मोमिन का कुफ़ है (हदीस-ए-रसूल (स)).
लिहाज़ा कोई भी मोमिन किसी भी मोमिन से शादी कर सकता है, नस्ली बरतरी और ताफखुर की
इस्लाम में कोई जगह नहीं!
सादात (सय्यद)का
अह्तेराम उम्मती इस लिए करते हैं क्युकी इन को खानदाने इस्लाम से निस्बत है लेकिन
सादात को बिला वजह ग़रूर का इज़हार नहीं करना चाहिए और न दीगर नस्लों को पस्त समझना
चाहिए, बलकी इस निस्बत की वजह से इन पर बहोत बड़ी ज़िम्मेदारी आएद होती है. सादात को
तक्वा और परहेज़गारी में बाकी सब से अफज़ल होना चाहिए, तब जा कर वो अपने आप को
फख्रेयाब सादात कह सकते है.
हज़रत मीसमे तम्मार
(र.अ), हज़रत सलमान फारसी (र.अ), हज़रत कंबर (र.अ), हजरत हबीब इब्ने मज़ाहिर (र.अ), बहोत
सी अज्वाजे आइम्मः (अ), हजरत मुहम्मद बिन अबुबक्र (र.अ) और बे तहाशा मिसाले हमारे
सामने है जो के सादात नहीं थे ना ही हाश्मी थे लेकिन तक्वा की उन मनाज़िल पर थे की
खुद को सादात कह कर ग़रूर करने वाले उन के क़दमो की धुल तक के बराबर नहीं!
अब आप हजरात से
सवालात ये हैं कि:
1.
क्या
कुरान की कोई आयत ऐसी है जिस में हुक्म है के सय्यद का ग़ैर सय्यद से निकाह जायज़
नहीं?
2.
हज़रत
अब्दुल मुत्तलिब की बेटी हज़रत जैनब (र.अ) हाश्मी हुई तो उन का निकाह रासुलेखुदा
(स) ने अपने गुज़िश्ता ग़ुलाम और ग़ैर सय्यद हज़रत ज़ैद (र.अ) से क्यों करवाया?
(अव्वल तो हाश्मी और औलादे बीबी फातिमा (स) पर खुम्सो ज़कात के अहकामात
एक है याने शरफ के लिहाज़ से दोनों एक तो यह मिसाल दी लेकिन अगर फिर भी कोई हाश्मी
को सय्यद से अलग करे तो फिर मौला अली (अ) ने बीबी जैनब (अ) का अकड हज़रात
अब्दुल्लाह (र.अ) जो के हाश्मी थे उन से क्यों किया?)
सुन्नत तो काएम हो गई कोई आंखे फिर बंद रखना चाहे तो कोई क्या करे?
3.
अब्दुल्लाह
इब्ने जफ़र सादिक (अ), इस्माइल इब्ने जफ़र सादिक, जफ़र कज्जाब इब्ने इमाम अली नकी,
वगैरह इन सब ने झूठा इमामत का दावा किया और जिन से आहादिस में आइम्माए तहिरिन (अ)
ने बेजारी का इज़हार किया, तो क्या यह सय्यद होने की वजह से सुर्खरू हो जाएगे? या
आइम्मा (अ) की बेजारी की वजह से पकड़ में आएँगे?
4.
“सलमान
हमारे अहलेबैत में से है” – यह एक मशहूर हदीस है. ऐसा क्यूँ है की सय्यद ना होते
हुए भी तक्वा के बाईस इस मंजिल पर है के अहलेबैत में शामिल कर लिया गया?
कुरान और हदीस की
रौशनी में फतवात:
1.
अयातुल्लाह
सिस्तानी सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद
में समझते है (Risalah,
Book of Nikah, issue #221)
2.
अयातुल्लाह
खामेनेई सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद
में समझते है (इस्तिफ्ता अयातुल्लाह खामेनेई)
3.
अयातुल्लाह
खुई (र.अ): एक आज़ाद औरत का एक ग़ुलाम के साथ निकाह – हाश्मी औरत का ग़ैर हाश्मी से
निकाह, एक अरब औरत का ग़ैर अरब से निकाह जायज़ है (Minhaj al-Saliheen (By Sayyid Abul Qasim al-Mousavi
al-Khoei), vol. II , Kitab al -Nikah.)
इसके अलावा
अयातुल्लाह गुल्पएगानी, अयातुल्लाह फजलुल्लाह, इमाम खोमीनी (र.अ),अयातुल्लाह
मकारेम शिराज़ी, अल्लामा हिल्ली (र.अ), अल्लामा राज़ी (र.अ), शेख मुफीद (र.अ), शेख
सदूक़ (र.अ), ग़रज़ यह की किसी भी आलिम ने सय्यद की ग़ैर सय्यद के साथ शादी से मन नहीं
फ़रमाया है.
मुखालिफिन की तरफ से
दो जवाज़:
1.
इमाम
मूसा काजिम (अ) की 18 / 20 बेटियां थी. जहाँ ये बात सच है की इमाम काजिम (अ) की
बेटियों की शादियाँ नहीं हुई और शेख कुम्मी (र.अ) की किताब से इक्तेबास लिया जाता
है की वहां यह बात सरहन बोहतान और झूट पर मबनी है की उन की शादियाँ इस लिए नहीं
हुई क्युकी कोई सय्यद नहीं था; उस किताब में ये लिखा है की उनका कोई कुफ़ नहीं था
और याद रहे की मोमिन मोमिन का कुफ़ है न की सय्यद सय्यद का और ग़ैर सय्यद ग़ैर सय्यद
का! इस तरह की ग़लत बातें इमाम मूसा काजिम (अ) और इमाम रेज़ा (अ) से जोडने से पहले
तारिख का बगौर मुतालिया कर लीजिये.
2.
दूसरी
यह हदीस पेश की जाती है जो रसुल्लुल्लाह (स) ने इमाम अली (अ) और हज़रात जाफ़रे तैयार
(अ) के बच्चो की तरफ देख कर कही:
“हमारी
लड़कियां हमारे लड़कों के लिए है और हमारे लडकें हमारी लड़कियों के लिए” (Man La Yad harul Faqeeh, chapter nikkah, pg. 249)
तो
अव्वल यह हदीस पूरी नस्ले सदात के लिए कही नहीं गई और सिर्फ इन खानदान के बीच
शादियों के लिए सूरते हाल के मुताबिक कही गई मगर फिर भी कोई बज़िद हो तो क्या मौला
अली (अ) ने बाद अज जनाबे फातिमा (स) बीबी उम्मुल बनीं से अकद नहीं किया? क्या इमाम
हुसैन (अ) और इमाम हसन (अ) और दीगर आइम्मा (अ) ने ग़ैर सय्यद से शादी नहीं की? क्या
नौज़ुबिल्लाह हमारे आइम्मा (अ) ने कौले रसूल (स) पर अमल नहीं किया?
लिहाज़ा
किसी के लिए सय्यद होना शरफ की बात तब होंगी जब वो मुत्तकी होगा और जब कोई मुतक्की
होता है तो खुदा के यहाँ अफज़ल हो जाता है और जातपात का पाबंद नहीं रहता.
बग़ैर
अमल के यह निस्बत रोज़े महशर किसी का फाएदा नहीं दे सकती जैसा के ऊपर हदीस में साफ़
वज़ह है. नबी से निस्बत जोड़ने वाले लोगों का नामे आमाल रोज़े महशर खाली हो और हकूक
उन नास की रियाअत भी न करते हो तो यकीनन यह लोग बाईस-ए-शर्मिंदगी बनेंगे लिहाज़ा खुदरा
रिश्ते तलाश करते हुए तक्वे को मेयार बनाये न की ज़ात को.
“और
बेशक अल्लाह की ज़ात को पाने के लिए अपनी ज़ात से निकलना होता है”
इस मौजु
को मजीद जानने के लिए ये विडियो क्लिप ज़रूर देखे: